Arvind Chidambaram: शतरंज में हर चाल मायने रखती है—कभी एक प्यादा धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, तो कभी अचानक किसी मोहरे की कुर्बानी खेल की दिशा ही बदल देती है। अरविंद चिदंबरम का सफर भी कुछ ऐसा ही रहा है—एक ऐसी यात्रा जहाँ उन्होंने खुद को हमेशा प्यादा माना, लेकिन अब वह ग्रैंडमास्टर की ऊँचाइयों पर हैं और सबकी नजरें इस पर टिकी हैं कि क्या वे आखिरकार शतरंज के राजा बनेंगे?
25 वर्षीय Arvind Chidambaram के लिए यह सफर आसान नहीं रहा। जब उनके उम्र के अन्य ग्रैंडमास्टर्स अपनी दूसरी या तीसरी बड़ी जीत तलाश रहे थे, तब उन्होंने पहली वास्तविक सफलता का स्वाद चखा। लेकिन यह सिर्फ़ शुरुआत थी। उन्होंने चेन्नई ग्रैंडमास्टर्स इवेंट जीता और फिर प्राग मास्टर्स में अपराजित रहते हुए खिताब अपने नाम किया। ये जीतें उनके करियर के सबसे अहम पड़ाव साबित हुईं, क्योंकि इन टूर्नामेंट्स में मुकाबला बेहद कठिन था। चेन्नई में लेवोन एरोनियन, मैक्सिम वचियर-लाग्रेव और अर्जुन एरिगैसी जैसे दिग्गज थे, तो प्राग में प्रग्गनानंदा, वेई यी, अनीश गिरी और विंसेंट कीमर जैसे दिग्गजों से जूझना पड़ा। लेकिन अरविंद ने सबको चौंकाते हुए साबित कर दिया कि वह भी अब भारतीय शतरंज की बड़ी ताकत बन चुके हैं।
कोच को था अपने शिष्य पर अटूट विश्वास
अरविंद को बचपन से जानने वाले लोग उनकी प्रतिभा को कभी कम करके नहीं आँकते। उनके कोच आरबी रमेश को आज भी 2013 का वह समय याद है जब उन्होंने सुज़ैन पोल्गर से कहा था कि यह 14 वर्षीय लड़का महज छह महीने में ग्रैंडमास्टर बनने के लिए तैयार है, जबकि तब तक उसने इंटरनेशनल मास्टर बनने के भी मानक पूरे नहीं किए थे। यह सुनकर सुज़ैन पोल्गर को संदेह हुआ, लेकिन रमेश का विश्वास अडिग था। अरविंद की माँ ने भी इस भरोसे पर पूरा परिवार मदुरै से चेन्नई शिफ्ट कर दिया। और नतीजा? सिर्फ़ पाँच महीनों के भीतर अरविंद ने तीनों ग्रैंडमास्टर नॉर्म्स पूरे कर दिए। यह इतनी दुर्लभ उपलब्धि थी कि उन्होंने इंटरनेशनल मास्टर बने बिना ही सीधे ग्रैंडमास्टर का खिताब हासिल कर लिया।
चेस के निरंतर प्रयास होता है जरूरी
लेकिन शतरंज सिर्फ़ प्रतिभा से नहीं, बल्कि अनुशासन और मानसिक मजबूती से भी खेला जाता है। Arvind Chidambaram के करियर में सबसे बड़ी बाधा उनकी आत्मसंशय की लड़ाई थी। उनकी प्रतिभा पर कभी सवाल नहीं उठा, लेकिन खेल के दबाव और निरंतर प्रदर्शन की जरूरत ने उनके करियर को धीमा कर दिया। कई बार ऐसा लगा कि वह पीछे छूट रहे हैं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने खुद पर काम किया, अपने मानसिक अवरोधों को तोड़ा और प्राग मास्टर्स में यह साबित किया कि जब इंसान खुद से जीतता है, तो कोई भी उसे हरा नहीं सकता।
अच्छी नींद लेकर मनाया जीत का जश्न
जीत के बाद जब उनसे पूछा गया कि वे इस सफलता का जश्न कैसे मनाएँगे, तो उनका जवाब बेहद सीधा और ईमानदार था—”मैं आज रात बस अच्छी नींद लूंगा। मैं बहुत थक गया हूँ। टूर्नामेंट में बढ़त लेने के बाद, दो दिनों से मैं सो ही नहीं पाया था!” यह बयान दिखाता है कि खेल के दबाव और मानसिक तनाव से गुजरना कैसा होता है, लेकिन इससे भी ज्यादा यह दिखाता है कि उन्होंने इसे खुद पर हावी नहीं होने दिया।
शतरंज -एक क्रूर खेल
अन्य खेलों में 25 की उम्र वह समय होता है, जब खिलाड़ी अपने शिखर पर पहुँचते हैं, लेकिन शतरंज में 16-17 साल के किशोर भी विश्व चैंपियन बनने की ओर बढ़ सकते हैं। ऐसे में अरविंद की यात्रा और भी प्रेरणादायक बन जाती है। उनकी शैली इतनी प्रभावशाली थी कि ग्रैंडमास्टर प्रवीण थिप्से ने कहा कि उनकी जीत महान सेविली टार्टाकोवर की याद दिलाती है—जहाँ हर चाल के पीछे एक गहरी योजना छिपी होती है।
भारत के पास कई मजबूत खिलाड़ी
भारतीय शतरंज इस समय अपने स्वर्णिम दौर में है। गुकेश, प्रग्गनानंदा और अर्जुन एरिगैसी जैसे युवा खिलाड़ी लगातार नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं. लेकिन जानकारों का मानना है कि उनकी पीढ़ी के अलावा भी भारत के पास कई और मजबूत खिलाड़ी हैं, जो दुनिया को चौंका सकते हैं। यही वजह है कि हिकारू नाकामुरा ने पिछले साल कहा था कि भारत के पास सिर्फ़ तीन नहीं, बल्कि कई दावेदार हैं, जो शतरंज के शीर्ष स्तर पर अपनी जगह बना सकते हैं—और अरविंद उनमें से एक हैं।
ग्रैंडमास्टर बनने के बाद भी खुद को प्यादा कहते हैं अरविन्द
अरविंद का ट्विटर हैंडल pawnof64squares उनके खेल के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है। वह खुद को हमेशा एक प्यादा मानते आए हैं—धीरे-धीरे आगे बढ़ने वाला, लेकिन मजबूत और जिद्दी। प्यादे धीरे बढ़ते हैं, लेकिन जब वे बोर्ड के दूसरे छोर पर पहुँचते हैं, तो वे किसी भी बड़े मोहरे में तब्दील हो सकते हैं। अब सवाल यह है—क्या अरविंद चिदंबरम की यह यात्रा उन्हें राजा के ताज तक ले जाएगी?