“शहीद दिवस 2025: बलिदान की एक अमर गाथा, जब हंसते-हंसते फांसी चूम लिया था इंकलाब ने!”

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By Diti Tiwari

“इंकलाब जिंदाबाद!”23 मार्च 1931, शाम के 7 बजकर 33 मिनट, लाहौर की सेंट्रल जेल में तीन नौजवान हंसते हुए फांसी के तख्ते की ओर बढ़ रहे थे। कोई डर नहीं, कोई पछतावा नहीं—बस आज़ादी का जुनून

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु… तीन ऐसे नाम जो अंग्रेजों के लिए खतरा और हिंदुस्तान के लिए उम्मीद बन चुके थे। उन्हें फांसी देने की खबर जेल से बाहर आते ही शहर में कोहराम मच गया। लाखों भारतीयों की आंखें नम थीं, लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत को डर था—ये मौतें भारत में इंकलाब की आग को और भड़का देंगी!

आज 23 मार्च 2025, उस ऐतिहासिक बलिदान को कई साल हो चुके हैं। लेकिन सवाल अब भी ज़िंदा है—क्या हमने भगत सिंह के सपनों का भारत बना लिया?

जब लाठियां बरसीं और क्रांति जन्मी!

यह कहानी शुरू होती है 30 अक्टूबर 1928 से, जब साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय पर अंग्रेजों ने बेरहमी से लाठियां बरसाईं। लाला जी घायल हुए, लेकिन गर्जना की—”मेरे शरीर पर पड़ी हर एक लाठी, अंग्रेज़ी हुकूमत के ताबूत की आखिरी कील साबित होगी!”भगत सिंह ने यह देखा और दिल में आग भड़क उठी! जब लाला जी की मृत्यु हुई, तो उन्होंने साथियों से कहा—अब चुप नहीं बैठेंगे!

सांडर्स की हत्या—पहला झटका!

17 दिसंबर 1928—लाहौर की सड़कों पर अचानक गोलियां गूंजती हैं! ब्रिटिश अफसर सांडर्स का शव ज़मीन पर गिर चुका था।भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने अंग्रेज़ों को पहला करारा जवाब दिया था। ये कोई निजी दुश्मनी नहीं थी, बल्कि एक संदेश—अब हर जुल्म का हिसाब होगा!इसके बाद भगत सिंह ने अपना हुलिया बदला, बाल कटवा लिए और कुछ समय के लिए भूमिगत हो गए। लेकिन उनकी क्रांति अभी अधूरी थी!

असेंबली बम धमाका—जब बहरे कानों तक पहुंचाई आवाज़!

8 अप्रैल 1929, दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में अंग्रेज़ अफसर बहस कर रहे थे कि भारत में दमनकारी कानून कैसे और सख्त किए जाएं। तभी अचानक धमाके की आवाज़ गूंजती है!भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंका, लेकिन यह किसी को मारने के लिए नहीं था। वे भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने खुद को गिरफ्तार करा लिया ताकि अदालत में अपनी बात रख सकें।अंग्रेज़ों ने उन्हें खतरनाक आतंकवादी कहा, लेकिन भगत सिंह ने मुस्कुराकर कहा— “बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ज़रूरत होती है!”

अदालत में क्रांति की दहाड़!

जेल में भगत सिंह किताबें पढ़ते, जेलर से बहस करते और अपने विचारों को धार देते रहे। कोर्ट में जब उनसे पूछा गया कि उनका मकसद क्या था, तो उन्होंने जवाब दिया—”क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है!” लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने पहले ही फैसला कर लिया था—फांसी!

23 मार्च 1931—जब इंकलाब फांसी पर चढ़ा!

फांसी की तारीख 24 मार्च तय थी, लेकिन अंग्रेजों को डर था कि अगर यह खबर फैल गई तो पूरा हिंदुस्तान सड़कों पर उतर आएगा। इसलिए 23 मार्च 1931 की शाम ही फांसी दे दी गई।जब जेलर ने आखिरी इच्छा पूछी, तो भगत सिंह मुस्कुराकर बोले—”बस, एक क्रांति होती देखनी है!”वे हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ गए, और उनका आखिरी नारा था—”इंकलाब जिंदाबाद!”फांसी के बाद अंग्रेज़ों ने उनके शव चोरी-छिपे फिरोजपुर के हुसैनीवाला में जलाने की कोशिश की, लेकिन जनता को जब पता चला, तो हज़ारों लोग वहां पहुंच गए। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की चिता को हिंदुस्तान की मिट्टी ने खुद संभाल लिया।

आज क्या हमने उनके सपनों का भारत बनाया?

आज, 23 मार्च 2025, हम आज़ाद हैं। लेकिन क्या हम उनके सपनों का भारत बना पाए हैं? अगर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु आज होते, तो क्या वे इस भारत को देखकर मुस्कुराते? या फिर उनकी आंखों में वही आग जल उठती, जो 1928 में लाहौर की सड़कों पर दिखी थी? शहीदों ने हमें एक आज़ाद देश दिया, लेकिन क्या हमने उसे एक न्यायपूर्ण, समानता से भरा, भयमुक्त समाज बनाया? अगर नहीं, तो हमें फिर से क्रांति की ज़रूरत है—बंदूकों की नहीं, विचारों की, सोच की, एकता की! क्योंकि इंकलाब सिर्फ़ नारों में नहीं होता, उसे जीना पड़ता है!

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